अगर हर जगह सिर्फ “तुम ही तुम हो”, तो क्या तुम वाकई “तुम” हो
– जब कोई व्यक्ति या चीज़ हर जगह मौजूद हो जाती है — सोच में, जीवन में, सांसों में, हर कोने में — तो उसकी पहचान भी घुलने लगती है।
– “तुम” जब हर बात, हर अहसास और हर याद में समा जाओ, तो एक दिन ऐसा भी आता है कि “तुम” का मतलब समझ नहीं आता, क्योंकि कोई अंतर ही नहीं बचता।
– यह सवाल केवल प्रेम का नहीं, आत्मचिंतन का है। अगर हर ओर सिर्फ तुम हो, तो बाकी सब क्या है?
– प्रेम में जब किसी की मौजूदगी इतनी गहरी हो जाती है कि हर बात में वही झलकने लगे, तो वह इंसान अपने व्यक्तित्व से ज़्यादा एक अनुभूति बन जाता है।
– लेकिन, क्या बिना दूरी के नज़दीकी का एहसास हो सकता है?
– “तुम” अगर हर जगह हो, तो “मैं” कहां हूं?
– और अगर “मैं” ही नहीं रहा, तो “तुम” का अस्तित्व भी अधूरा है।
– यह पंक्ति एक गहरा दार्शनिक भाव लिए हुए है — पहचान, आत्मा और संबंध की सीमाओं को टटोलती हुई।
– जब प्रेम, विचार या भावना इतनी हावी हो जाए कि हर ओर वही नज़र आए, तब सवाल उठता है कि क्या वह “तुम” अब भी वही है, या वह सब कुछ बनकर अपनी मूल पहचान खो चुका है?
“तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो” — ये शब्द प्रेम की गहराई, आत्म-विसर्जन, और भावनात्मक अस्तित्व की उस सीमा की ओर इशारा करते हैं जहाँ “तुम” और “मैं” के बीच का भेद मिट जाता है। और तब, सवाल बनता है — क्या तब भी “तुम”, तुम ही रहते हो?
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