राजा हरिश्चंद्र प्राचीन भारत के एक अत्यंत प्रसिद्ध और पूजनीय राजा थे, जिनका उल्लेख मुख्य रूप से हिंदू धर्मग्रंथों, विशेषकर पुराणों और महाभारत में मिलता है। वे सूर्यवंश के इक्कीसवें राजा थे और अयोध्या पर शासन करते थे, जो बाद में भगवान राम की जन्मभूमि बनी। उनकी गणना भारत के उन कुछ राजाओं में की जाती है जिन्होंने अपनी सत्यनिष्ठा, धर्मपरायणता और दृढ़ संकल्प के लिए अपनी सब कुछ त्याग दिया।
हरिश्चंद्र को सत्यवादी राजा के रूप में जाना जाता है। उनकी कहानी का केंद्रीय बिंदु उनकी प्रतिज्ञा को पूरा करने का अद्वितीय साहस है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, ऋषि विश्वामित्र ने उनकी सत्यनिष्ठा की परीक्षा लेने का निश्चय किया। विश्वामित्र ने उनसे अपना सारा राज्य दान में मांग लिया और जब राजा ने सहर्ष दान दिया, तब ऋषि ने उनसे दक्षिणा के रूप में एक बड़ी धनराशि की मांग की, जिसे चुकाने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं था।
अपनी प्रतिज्ञा और वचन को निभाने के लिए, राजा हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी शैव्या (कहीं-कहीं तारामती) और पुत्र रोहिताश्व (कहीं-कहीं रोहित) को एक ब्राह्मण के हाथों बेच दिया और स्वयं एक चांडाल (श्मशान के रखवाले) के दास बन गए। उन्होंने श्मशान घाट पर मृतकों के अंतिम संस्कार के लिए शुल्क वसूलने का कार्य किया। घोर कष्ट सहते हुए भी, उन्होंने कभी अपने सत्य के मार्ग को नहीं छोड़ा।
एक दिन, उनकी पत्नी अपने मृत पुत्र रोहिताश्व का अंतिम संस्कार करने श्मशान घाट आईं और हरिश्चंद्र ने उन्हें भी बिना शुल्क के अंतिम संस्कार करने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वे अपने स्वामी के प्रति निष्ठावान थे। यह देखकर विश्वामित्र अंततः प्रकट हुए और हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा से अत्यंत प्रभावित हुए। उन्होंने राजा को उनका राज्य और परिवार वापस लौटा दिया, और उन्हें स्वर्ग में स्थान प्राप्त हुआ।
राजा हरिश्चंद्र की कहानी हमें सिखाती है कि सत्य का मार्ग कितना भी कठिन क्यों न हो, अंततः वही विजयी होता है। उनका जीवन त्याग, धैर्य और नैतिक मूल्यों के पालन का एक महान उदाहरण है, जिसने उन्हें युगों-युगों तक अमर बना दिया है।
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